Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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सूरदास रुपये लिए हुए भैरों के घर की ओर चला। भैरों रपट करने जाना तो चाहता था; पर शंका हो रही थी कि कहीं सूरदास की झोंपड़ी की भी बात चली, तो क्या जवाब दँगा। बार-बार इरादा करके रुक जाता था। इतने में सूरदास को सामने आते देखा, तो हक्का-बक्का रह गया। विस्मित होकर बोला-अरे, क्या जरीबाना दे आया क्या?
बुढ़िया बोली-बेटा, इसे जरूर किसी देवता का इष्ट है, नहीं तो वहाँ से कैसे भाग आता!
सूरदास ने बढ़कर कहा-भैरों, मैं ईश्वर को बीच में डालकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम कि तुम्हारी दूकान किसने जलाई। तुम मुझे चाहे जितना नीच समझो; पर मेरी जानकारी में यह बात कभी न होने पाती। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि यह किसी मेरे हितू का काम है।
भैरों-पहले यह बताओ कि तुम छूट कैसे आए? मुझे तो यही बड़ा अचरज है।
सूरदास-भगवान् की इच्छा। सहर के कुछ धर्मात्मा आदमियों ने आपस में चंदा करके मेरा जरीबाना भी दे दिया और कोई तीन सौ रुपये जो बच रहे हैं, मुझे दे गए हैं। मैं तुमसे यह कहने आया हूँ कि तुम ये रुपये लेकर अपनी दूकान बनवा लो, जिसमें तुम्हारा हरज न हो। मैं सब रुपये ले आया हूँ।
भैरों भौंचक्का होकर उसकी ओर ताकने लगा, जैसे कोई आदमी आकाश से मोतियों की वर्षा होते देखे। उसे शंका हो रही थी कि इन्हें बटोरूँ या नहीं, इनमें कोई रहस्य तो नहीं है, इनमें कोई जहरीला कीड़ा तो नहीं छिपा हुआ है, कहीं इनको बटोरने से मुझ पर कोई आफत तो न आ जाएगी। उसके मन में प्रश्न उठा, यह अंधा सचमुच रुपये देने के लिए आया है, या मुझे ताना दे रहा है। जरा इसका मन टटोलना चाहिए,बोला-तुम अपने रुपये रखो, यहाँ कोई रुपयों के भूखे नहीं हैं! प्यासे मरते भी हों, तो दुश्मन के हाथ से पानी न पिएँ।
सूरदास-भैरों, हमारी-तुम्हारी दुसमनी कैसी? मैं तो किसी को अपना दुश्मन नहीं देखता। चार दिन की जिंदगानी के लिए क्या किसी से दुसमनी की जाए! तुमने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की। तुम्हारी जगह मैं होता और समझता कि तुम मेरी घरवाली को बहकाए लिए जाते हो,तो मैं भी वहीं करता, जो तुमने किया। अपनी आबरू किसको प्यारी नहीं होती? जिसे अपनी आबरू प्यारी न हो, उसकी गिनती आदमियों में नहीं, पशुओं में है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, तुम्हारे ही लिए मैंने ये रुपये लिए, नहीं तो मेरे लिए तो पेड़ की छाँह बहुत थी। मैं जानता हूँ,अभी तुम्हें मेरे ऊपर संदेह हो रहा है, लेकिन कभी-न-कभी तुम्हारा मन मेरी ओर से साफ हो जाएगा। ये रुपये लो और भगवान् का नाम लेकर दूकान बनवाने में हाथ लगा दो। कम पड़ेंगे, तो जिस भगवान् ने इतनी मदद की है, वही भगवान् और मदद भी करेंगे।
भैरों को इन वाक्यों में सहृदयता और सज्जनता की झलक दिखाई दी। सत्य विश्वासोत्पादक होता है। नरम होकर बोला-आओ, बैठो, चिलम पियो। कुछ बातें हों, तो समझ में आए। तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता। दुश्मन के साथ कोई भलाई नहीं करता। तुम मेरे साथ क्यों इतनी मेहरबानी करते हो?
सूरदास-तुमने मेरे साथ कौन-सी दुश्मनी की? तुमने वही किया, जो तुम्हारा धरम था! मैं रात-भर हिरासत में बैठा यही सोचता रहा कि तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो, मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं की, तो मुझे मालूम हुआ कि तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं कर रहे हो। यही तुम्हारा धरम है। औरत के पीछे तो खून हो जाता है। तुमने नालिस ही कर दी, तो कौन बुरा काम किया! बस, अब तुमसे मेरी यही विनती है कि जिस तरह कल भरी अदालत में पंचों ने मुझे निरपराध कह दिया, उसी तरह तुम भी मेरी ओर से अपना मन साफ कर लो। मेरी इससे भी बड़ी दुर्गत हो, अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई घाटा किया है। हाँ, मुझसे एक ही बात नहीं हो सकती। मैं सुभागी को अपने घर से निकाल नहीं सकता। डरता हूँ कि कोई आड़ न रहेगी, तो न जाने उसकी क्या दसा हो। मेरे यहाँ रहेगी, तो कौन जाने, कभी तुम्हीं उसे फिर रख लो।

भैरों का मलिन हृदय इस आंतरिक निर्मलता से प्रतिबिम्बित हो गया। आज पहली बार उसे सूरदास की नेकनीयती पर विश्वास हुआ। सोचा-अगर इसका दिल साफ न होता, तो मुझसे ऐसी बातें क्यों करता? मेरा कोई डर तो इसे है नहीं। मैं जो कुछ कर सकता था, कर चुका। इसके साथ तो सारा सहर है। सबों ने जरीबाना अदा कर दिया। ऊपर से कई सौ रुपए और दे गए। मुहल्ले में भी इसकी धाक फिर बैठ गई। चाहे तो बात-की-बात में मुझे बिगाड़ सकता है। नीयत साफ न होती, तो अब सुभागी के साथ आराम से रहता। अंधा है, अपाहिज है, भीख माँगता है; पर उसकी कितनी मरजाद है, बड़े-बडे आदमी आव-भगत करते हैं! मैं कितना अधम, नीच आदमी हूँ, पैसे के लिए रात-दिन दगा-फरेब करता रहता हूँ। कौन-सा पाप है, जो मैंने नहीं किया! इस बेचारे का घर जलाया, एक बार नहीं, दो बार इसके रुपये उठा ले गया। यह मेरे साथ नेकी ही करता चला आता है। सुभागी के बारे में मुझे सक-ही-सक था। अगर कुछ नीयत बद होती, तो इसका हाथ किसने पकड़ा था,सुभागी को खुले-खजाने रख लेता। अब तो अदालत-कचहरी का भी डर नहीं रहा। यह सोचता हुआ वह सूरदास के पास आकर बोला-सूरे, अब तक मैंने तुम्हारे साथ जो बुराई-भलाई की, उसे माफ करो। आज से अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई करूँ, तो भगवान मुझसे समझें। ये रुपये मुझे मत दो, मेरे पास रुपये हैं। ये भी तुम्हारे ही रुपये हैं। दूकान बनवा लूँगा। सुभागी पर भी मुझे अब कोई संदेह नहीं रहा। मैं भगवान् को बीच में डालकर कहता हूँ, अब मैं कभी उसे कोई कड़ी बात तक न कहूँगा। मैं अब तक धोखे में पड़ा हुआ था। सुभागी मेरे यहाँ आने पर वह तुम्हारी बात को नाहीं तो न करेगी?

सूरदास-राजी ही है, बस उसे यही डर है कि तुम फिर मारने-पीटने लगोगे।
भैरों-सूरे, अब मैं उसे भी पहचान गया। मैं उसके जोग नहीं था। उसका ब्याह तो किसी धर्मात्मा आदमी से होना चाहिए था। (धीरे से) आज तुमसे कहता हूँ, पहली बार भी मैंने ही तुम्हारे घर में आग लगाई थी और तुम्हारे रुपये चुराए थे।
सूरदास-उन बातों को भूल जाओ भैरों! मुझे सब मालूम है। संसार में कौन है, जो कहे कि मैं गंगाजल हूँ। जब बडे-बड़े साधु-संन्यासी माया-मोह में फँसे हुए हैं, तो हमारी-तुम्हारी क्या बात है! हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाए, तो क्या हाथ आएगा? खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे; पर हार से घबराए नहीं, ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराए कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो जिंदगानी के साथ है। हाँ, एक सलाह की बात कहता हूँ। तुम ताड़ी की दुकान छोड़कर कोई दूसरा रोजगार क्यों नहीं करते?
भैरों-जो कहो, वह करूँ। यह रोजगार खराब है। रात-दिन जुआरी, चोर, बदमाश आदमियों का ही साथ रहता है। उन्हीं की बातें सुनो, उन्हीं के ढंग सीखो। अब मुझे मालूम हो रहा है कि इसी रोजगार ने मुझे चौपट किया। बताओ, क्या करूँ?
सूरदास-लकड़ी का रोजगार क्यों नहीं कर लेते? बुरा नहीं है। आजकल यहाँ परदेसी बहुत आएँगे, बिक्री भी अच्छी होगी। जहाँ ताड़ी की दूकान थी, वहीं एक बाड़ा बनवा दो और इन रुपयों से लकड़ी का काम करना शुरू कर दो।
भैरों-बहुत अच्छी बात है। मगर ये रुपये अपने ही पास रखो। मेरे मन का क्या ठिकाना!
रुपये पाकर कोई और बुराई न कर बैठूँ। मेरे-जैसे आदमी को तो कभी आधो पेट के सिवा भोजन न मिलना चाहिए। पैसे हाथ में आए, और सनक सवार हुई।
सूरदास-मेरे घर न द्वार, रखूँगा कहाँ?
भैरों-इससे तुम अपना घर बनवा लो।
सूरदास-तुम्हें लकड़ी की दुकान से नफा हो, तो बनवा देना।
भैरों-सुभागी को समझा दो।
सूरदास-समझा दूँगा।
सूरदास चला गया। भैरों घर गया, तो बुढ़िया बोली-तुझसे मेल करने आया था न?
भैरों-हाँ, क्यों न मेल करेगा, मैं बड़ा लाट हूँ न! बुढ़ापे में तुझे और कुछ नहीं सूझता। यह आदमी नहीं, साधु है!

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